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रविवार, 17 नवंबर 2013

बदमाश



वह बेजुबां  नहीं 
हिल रही थी उसकी जीभ
वह चुप है 
क्योंकि नहीं चाहता 
बोलना 

वह नहीं है गरीब 
ढकी है उसकी देह 
कपडे से, 
ये बात और-
नहीं है तहजीब
लपेटे है  लुंगी
फटी-मैली 
अपने तन पर
बजाय पहने के 
सलीके से ,

और भूखा .. 
बिलकुल ग़लत
खर रहा था घास
कल ही
पिछवाड़े मेरे बंगले के 
है शाकाहारी जो,

बेहद बदमाश .. 
कुंकियता रहा फिर भी
दरवाजे पर मेरे
पहरेदारी में लग गई
ठण्ड 
नाहक मेरे डौगी को। 



बधाई भारत के रतन को

बधाई भारत के रतन को 

मेरे रतन !
बधाई तुम्हें
होने के लिए बिदा 
तगमे के साथ। 

पहुंचे सलाम मेरा भी
तुम्हारे कदमों में 
नहीं ले सकता बोसे तुम्हारे माथे की 
रह कर इतनी दूर तुम्हारे साये से
इसलिए ,
भगवन भाग्य-विधाता
भारत के -
राजा युवा मन के !

पर पूछता हूँ तुमसे,
याद आई सीपी वह -
पाया अथाह दर्द
दुःख-प्रतारणा- उपवास
और अंत ,
जीवन का क्षय और नाश
तुम्हारे लिए
गढ़ने में तेरा आकर
रचाने में तुम्हें
बनाने में तुम्हें रतन भारत का-
कितनी बार ?

किया महसूस -
वक्ष पर वह अनवरत ,
लूट जाने दिया
अपना मन-चित्त-प्राण
निधि , अपने जीवन का संचय
तलाश में तुम्हारी,
चोट उस धरती का
मेहनत-
तराशे गए जिनके बीच तुम
उन हाथों की,
अँधेरा-
जिनसे छिनी हुई चमक
बसती है तुममें
उन आांखों का
कितनी बार ?

ख़ुशी के नूर से
बक्शा हुआ चेहरा
बरक़रार है
छीन कर लाली गालों से
देश के नव-निहालों की
सहने से घाम-शीत-वर्षा
बाढ़ और-सुखाड़ ,
सोचा है कभी ?

छोडो भी ,
आओ न मेरे रतन!
मेरी छानी में,
खाएं-
दो कोर नून-भात
साथ-साथ।