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रविवार, 8 सितंबर 2013

सब साजिश है….



कोई चील 
लगता है चक्कर 
ठीक ऊपर मेरे सिर के
घट न जाय कोई अघट
बैठ जाता मैं दुबक कर। 

रात भर
लगाता रहा रट
उल्लू कोई
मेरे ही नाम की

सुबह दिखी लाश
बिछी हुई
आँखों के आगे
अपनी ही

तैनात फौजें
दिन रात मेरी ही खातिर
फिर भी लूटा गया मैं
बार-बार संगीनों के साये में

खैरियत की खातिर
तैनात रहा अमला
हकीमों का
हर वक्त
लेकिन
सताता रहा जुलाब
बढती रही धुक-धुकी कलेजे की
अंदेशा रुकने का सांसों के

वेंटिलेटर पर लेटा हुआ
मससूस करता रहा
निकल आया
खतरे की सीमा के भीतर
फिर भी मैं जिन्दा हूँ

वे चिल्लाते रहे
किले की दीवार से
कि
मैं अभी जिन्दा हूँ

वे बंद कमरे
में करते रहे
कुसूर-फुसुर
कि
मैं अभी जिन्दा हूँ

उछला सवाल संसद में
जवाब आया
कि
मैं अभी जिन्दा हूँ

हडबडाई-सी आई आवाज़
मेरे पीछे से
सचमुच क्या जिन्दा है -
राष्ट्रधर्म!
अर्थव्यवस्था !!
देश !!!

हौले से कहा
किसी ने
चुपकर
सब साजिश है….

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